Yoga Vashisht: पूर्व काल में सुतीक्षण नाम से एक ब्राह्मण थे, उनके मन में एक बार संशय छा गया था, अतः उन्होंने महर्षि अगस्त के आश्रम में जाकर उन महामुनि से आदर पूर्वक पूछा- भगवान! आप धर्म के तत्व को जानते हैं। आपको संपूर्ण शास्त्रों के सिद्धांत का सुनिश्चित ज्ञान है। Yoga Vashishtha
Yoga Vashishtha
मेरे हृदय में एक महान संदेह है, आप कृपया इसका समाधान कीजिए- मोक्ष का कारण कर्म है या ज्ञान है अथवा दोनों ही है?
इन तीनों पक्षों में से किसी एक का निश्चय करके जो वास्तव में मोक्ष का कारण हो उसका प्रतिपादन कीजिए।
अगस्त मुनि ने कहा- ब्राह्मण! जैसे दोनों ही पंखों से पक्षियों का आकाश में उड़ना संभव होता है, इस प्रकार ज्ञान और निष्काम कर्म दोनों से ही परम पद की प्राप्ति होती है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास है, जिसे मैं तुम्हारे समक्ष वर्णन करता हूं। बहुत साल पहले की बात है- करुण्य नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे, जो अग्निवैश्य के पुत्र थे।
उन्होंने संपूर्ण वेदों का अध्ययन किया था, तथा वे वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान थे, गुरु के यहां से विद्या पढ़कर अपने घर लौटने के बाद वे संध्या वंदन आदि कोई भी काम ना करते हुए चुपचाप बैठे रहने लगे।
उनका मन संशय से भरा हुआ था। पिता अग्निवेश ने देखा कि मेरा पुत्र शास्त्रोक्त कर्मों का परित्याग करके निंदनीय हो गया है .तभी उसके हित के लिए इस प्रकार बोले- बेटा! यह क्या बात है? तुम अपने कर्तव्यों कर्मों का पालन क्यों नहीं करते? बताओ तो सही।
यदि सत्कर्मों के अनुष्ठान नहीं लगोगे तो तुम्हें परम सिद्धि कैसे प्राप्त होगी? तुम जो इस कर्तव्य कर्म से निवृत हो रहे हो इसमें क्या कारण है? यह मुझसे कहो
करुण्य बोले- पिताजी! आजीवन अग्निहोत्र और प्रतिदिन संध्या उपासना करने से इस प्रवृत्ति रूप धर्म का श्रुति और स्मृति ने विधान अथवा प्रतिपादन किया है।
साथ ही यह एक दूसरी श्रुति भी है जिसके अनुसार न धन से न कर्म से और ना संतान के उत्पादन से ही मोक्ष प्राप्त होता है।
मुख्य मुख्य यात्रियों ने एकमात्र त्याग से ही अमृत स्वरूप मोक्ष सुख का अनुभव किया है। पूज्य पिताजी! इन दो प्रकार की श्रुतियों में से मुझे किसके आदेश का पालन करना चाहिए? इस संसार में पड़कर मैं कर्म की ओर से उदासीन हो गया हूं।
अगस्त मुनि ने कहा- तात – सुतीक्ष्ण ! पिता से यों कहकर वे ब्राह्मण करुण्य चुप हो गए! पुत्र को इस प्रकार कम से उदासीन हुआ देख पिता ने पुनः उससे कहा।
अग्नि वैश्य बोले- बेटा! मैं तुमसे एक कथा कहता हूं, उसे सुनो और उसकी संपूर्ण तात्पर्य का अपने हृदय में निश्चय कर लेने की पश्चात तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो।
सुरुचि नाम से प्रसिद्ध कोई देवलोक की स्त्री थी, जो अप्सराओं में श्रेष्ठ समझी जाती थी। एक दिन वह मयूरों के झुंड से घिरे हुए हिमालय के एक शिखर पर बैठी थी। इस समय उसने आकाश में इंद्र के एक दूत को कहीं जाती देखा। उसे देखकर अप्सराओं में श्रेष्ठ महाभागा सुरुचि ने इस प्रकार पूछा- महाभागा देवदूत! आप कहां से आ रहे हैं और इस समय कहां जाएंगे? यह सब कृपा करके मुझे बताइए।
देवदूत ने कहा- भद्र! सुनो; जो वृतांत जैसे घटित हुआ है, वह सब मैं तुमसे विस्तार से बता रहा हूं। सुंदर भावों वाली सुंदरी! धर्मात्मा राजा अरिष्टनेमि अपने पुत्र को राज्य देकर स्वयं वीतराग हो तपस्या के लिए वन में चले गए और अब गंधमादन पर्वत पर वे तपस्या कर रहे हैं।
वहां वन में ज्यों ही उन्होंने दुस्तर तपस्या आरंभ की, त्यों ही देवराज इंद्र ने मुझे आदेश दिया- दूत ! तुम यह विमान लेकर शीघ्र वहां जाओ! इस विमान में अप्सराओं के समुदाय को भी साथ ले लो। नाना प्रकार के वाद्य इसकी शोभा बढ़ाते रहें।
गंधर्व, सिद्ध, यश और किन्नर आदि से भी यह सुशोभित होना चाहिए। इसमें ताल , वेणु और मृदंग आदि भी रख लो।
इस प्रकार भाति -भांति के वृक्षों से भरे हुए सुंदर गंधमादन पर्वत पर पहुंचकर तुम राजा अरिष्टनेमि को इस विमान पर चढ़ा लो और उन्हें स्वर्ग का सुख भोगने के लिए अमरावती नगरी में ले जाओ।
देवराज इंद्र की यह आज्ञा पाकर मैं सामग्रियों से संयुक्त विमान ले उस पर्वत पर गया। वहां पहुंचकर राजा अरिष्टनेमि की आश्रम पर गया, फिर मैं देवराज इंद्र की सारी आज्ञा राजा से कह सुनाई। Yoga Vashishtha
शुभे ! मेरी बात सुनकर संदेह में पड़ गए और इस प्रकार बोले – देवदूत ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूं, आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर दें। स्वर्ग में कौन-कौन से गुण हैं और कौन-कौन से दोष ? Yoga Vashishtha
आप मेरे सामने उनका शुभ स्पष्ट वर्णन कीजिए? स्वर्ग लोक में रहने के गुण- दोष को जानने के पश्चात मेरी जैसी रुचि होगी, वैसा करूंगा। Yoga Vashishtha
मैंने कहा- राजन! स्वर्ग लोक में जीव अपने पुण्य की सामग्री के अनुसार उत्तम सुख का उपभोग करता है।
उत्तम पुण्य से उत्तम स्वर्ग की प्राप्ति होती है, मध्यम पुण्य से मध्यम स्वर्ग मिलता है और उनकी अपेक्षा निम्न श्रेणी की पुण्य से उसके अनुरूप स्वर्ग सुलभ होता है। Yoga Vashishtha
इसके विपरीत कुछ नहीं होता। स्वर्ग में भी दूसरों को अपने से ऊंची स्थिति में देखकर लोगों के लिए उनका उत्कर्ष असहाय हो उठता है।
जो लोग समान स्थिति में होते हैं, वह भी अपने बराबर वालों के साथ स्पर्धा रखते हैं तथा जो स्वर्गवासी अपने से हीन स्थिति में होते हैं, उनको अपनी अपेक्षा अल्प सुखी देखकर अधिक सुख वालों को संतोष होता है। इस प्रकार असहिष्णुता , स्पर्धा और संतोष का अनुभव करते हुए पुण्य आत्मा पुरुष तभी तक स्वर्ग में रहते हैं जब तक उनके पुण्य का भोग समाप्त नहीं हो जाता है। Yoga Vashishtha
पुण्य को क्षय हो जाने पर वह जीव पुनः इस मरते लोक में प्रवेश करते हैं और पार्थिव शरीर धारण करते रहते हैं।
राजन! स्वर्ग में इसी तरह के गुण और दोष विद्यमान हैं। Yoga Vashishtha
भद्रे ! मेरी यह बात सुनकर राजा ने इस प्रकार उत्तर दिया- देवदूत! जहां ऐसा फल प्राप्त होता है, उसे स्वर्ग लोक में मैं नहीं जाना चाहता। आप इस विमान को लेकर जैसे आए थे, वैसे ही देवराज इंद्र के पास चले जाइए।
आपको नमस्कार है। Yoga Vashishtha
भद्रे! जब राजा ने मुझसे ऐसी बात कही, तब मैं इंद्र के समक्ष यह वृत्तांत निवेदन करने के लिए लौट गया। वहां जब मैं सब बातें ज्यों की त्यों कह सुनाई, तब देवराज इंद्र को महान आश्चर्य हुआ और वह स्निग्ध एवं मधुर वाणी में मुझे पुनः बोले।
इंद्र ने कहा- दूत ! तुम फिर वहां जाओ और उस विरक्त राजा को आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए तत्वज्ञ महर्षि वाल्मीकि के आश्रम ले जाओ। Yoga Vashishtha
वहां महर्षि वाल्मीकि से मेरा यह संदेश कह देना- महामुनी! इन विनयशील वीतराग तथा स्वर्ग की भी इच्छा न रखने वाले नरेश को आप तत्व ज्ञान उपदेश दीजिए। Yoga Vashishtha
ये जन्म मरण रूप संसार दुःख से पीड़ित हैं, अतः आपके दिए हुए तत्व ज्ञान के उपदेश से इन्हें मोक्ष प्राप्त होगा।
Read More:
Summary:
पुण्य को क्षय हो जाने पर वह जीव पुनः इस मरते लोक में प्रवेश करते हैं और पार्थिव शरीर धारण करते रहते हैं।
राजन! स्वर्ग में इसी तरह के गुण और दोष विद्यमान हैं।
भद्रे ! मेरी यह बात सुनकर राजा ने इस प्रकार उत्तर दिया- देवदूत! जहां ऐसा फल प्राप्त होता है, उसे स्वर्ग लोक में मैं नहीं जाना चाहता। आप इस विमान को लेकर जैसे आए थे, वैसे ही देवराज इंद्र के पास चले जाइए। Yoga Vashishtha